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सुमन पार्क से लौटी तो उसे खेद होने लगा कि मैंने शर्माजी को वे ही दुखानेवाली बातें क्यों कहीं उन्होंने इतनी उदारता से मेरी सहायता की, जिसका मैंने यह बदला दिया? वास्तव में मैंने अपनी दुर्बलता का अपराध उनके सिर मढ़ा। संसार में घर-घर नाच-गाना हुआ करता है, छोटे-बड़े, दीन-दुःखी सब देखते हैं और आनंद उठाते हैं। यदि मैं अपनी कुचेष्टाओं के कारण आग में कूद पड़ी, तो उसमें शर्माजी का या किसी और का क्या दोष? बाबू विट्ठलदास शहर के आदमियों के पास दौड़े, क्या वह उन सेठों के पास न गए होंगे जो यहां आते हैं? लेकिन किसी ने उनकी मदद न की, क्यों? इसलिए न की कि वे नहीं चाहते हैं कि मैं यहां से मुक्त हो जाऊं। मेरे चले जाने से उनकी काम-तृष्णा में विघ्न पड़ेगा। वे दयाहीन व्याघ्र के समान मेरे हृदय को घायल करके मेरे तड़पने का आनंद उठाना चाहते हैं। केवल एक ही पुरुष है, जिसने मुझे इस अंधकार से निकालने के लिए हाथ बढ़ाया, उसी का मैंने इतना अपमान किया।
मुझे मन में कितना कृतघ्न समझेंगे। वे मुझे देखते ही कैसे भागे, चाहिए तो यह था कि मैं लज्जा से वहीं गड़ जाती, केवल मैंने इस पापभय के लिए इतनी निर्लज्जता से उनका तिरस्कार किया! जो लोग अपने कलुषित भावों से मेरे जीवन को नष्ट कर रहे हैं, उनका मैं इतना आदर करती हूं! लेकिन जब व्याध पक्षी को अपने जाल में फंसते नहीं देखता, तो उसे उस पर कितना क्रोध आता है! बालक जब कोई अशुद्ध वस्तु छू लेता है, तो वह अन्य बालकों को दौड़-दौड़कर छूना चाहता है, जिससे वह भी अपवित्र हो जाएं। क्या मैं भी हृदय शून्य व्याध हूं या अबोध बालक?
किसी ग्रंथकार से पूछिए कि वह एक निष्पक्ष समालोचक के कटुवाक्यों के सामने विचारहीन प्रशंसा का क्या मूल्य समझता है। सुमन को शर्माजी की यह घृणा अन्य प्रेमियों की रसिकता से अधिक प्रिय मालूम होती थी।
रात-भर वह इन्हीं विचारों में डूबी रही। मन में निश्चय कर लिया कि प्रातःकाल विट्ठलदास के पास चलूंगी और उनसे कहूंगी कि मुझे आश्रय दीजिए। मैं आपसे कोई सहायता नहीं चाहती, केवल एक सुरक्षित स्थान चाहती हूं। चक्की पीसूंगी, कपड़े सीऊंगी और किसी तरह अपना निर्वाह कर लूंगी।
सबेरा हुआ। वह उठी और विट्ठलदास के घर चलने की तैयारी करने लगी कि इतने में वह स्वयं आ पहुंचे। सुमन को ऐसा आनंद हुआ, जैसे किसी भक्त को आराध्यदेव के दर्शन से होता है। बोली– आइए महाशय। मैं कल दिन-भर आपकी राह देखती रही।
विट्ठलदास– कल कई कारणों से नहीं आ सका।
सुमन– तो आपने मेरे रहने का कोई प्रबंध किया?
विट्ठलदास– मुझसे तो कुछ नहीं हो सका, लेकिन पद्मसिंह ने लाज रख ली। उन्होंने तुम्हारा प्रण पूरा कर दिया। वह अभी मेरे पास आए थे और वचन दे गए हैं कि तुम्हें पचास रुपए मासिक आजन्म देते रहेंगे।
सुमन के विस्मयपूर्ण नेत्र सजल हो गए। शर्माजी की इस महती उदारता ने उसके अंतःकरण को भक्ति, श्रद्धा और विमल प्रेम से प्लावित कर दिया। उसे अपने कटु वाक्यों पर अत्यंत क्षोभ हुआ। बोली– शर्माजी दया और धर्म के सागर हैं। इस जीवन में उनसे उऋण नहीं हो सकती। ईश्वर उन्हें सदैव सुखी रखे। लेकिन मैंने उस समय जो कुछ कहा था, वह केवल परीक्षा के लिए था। मैं देखना चाहती थी कि सचमुच मुझे उबारना चाहते हैं या केवल धर्म का शिष्टाचार कर रहे हैं। अब मुझे विदित हो गया कि आप दोनों सज्जन देवरूप हैं। आप लोगों को वृथा कष्ट नहीं देना चाहती। मैं सहानुभूति की भूखी थी, वह मुझे मिल गई। अब मैं अपने जीवन का भार आप लोगों पर नहीं डालूंगी। आप केवल मेरे रहने का कोई प्रबंध कर दें, जहां मैं विघ्न-बाधा से बची रह सकूं।
विट्ठलदास चकित हो गए। जातीय गौरव से आंखें चमक उठीं। उन्होंने सोचा, हमारे देश की पतित स्त्रियों के विचार भी ऐसे उच्च होते हैं। बोले– सुमन, तुम्हारे मुंह से ऐसे पवित्र शब्द सुनकर मुझे इस समय जो आनंद हो रहा है, उसका वर्णन नहीं कर सकता। लेकिन रुपयों के बिना तुम्हारा निर्वाह कैसे होगा?
सुमन– मैं परिश्रम करूंगी। देश में लाखों दुखियाएं हैं, उनका ईश्वर के सिवा और कौन सहायक है? अपनी निर्लज्जता का कर आपसे न लूंगी।
विट्ठलदास– वे कष्ट तुमसे सहे जाएंगे?
सुमन– पहले नहीं सहे जाते थे, लेकिन अब सब कुछ सह लूंगी। यहां आकर मुझे मालूम हो गया कि निर्लज्जता सब कष्टों से दुस्सह है। और कष्टों से शरीर को दुःख होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है। मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि उसने आप लोगों को मेरी रक्षा के लिए भेज दिया।
विट्ठलदास– सुमन, तुम वास्तव में विदुषी हो।
सुमन– तो मैं यहां से कब चलूं?
विट्ठलदास– आज ही। अभी मैंने आश्रम की कमेटी में तुम्हारे रहने का प्रस्ताव नहीं किया है, लेकिन कोई हरज नहीं है, तुम वहां चलो, ठहरो। अगर कमेटी ने कुछ आपत्ति की तो देखा जाएगा हां, इतना याद रखना कि अपने विषय में किसी से कुछ मत कहना, नहीं तो विधवाओं में हलचल मच जाएगी।
सुमन– आप जैसा उचित समझें करें, मैं तैयार हूं।
विट्ठलदास– संध्या समय चलना होगा।
विट्ठलदास के जाने के थोड़ी ही देर बाद दो वेश्याएं सुमन से मिलने आईं। सुमन ने कह दिया, मेरे सिर में दर्द है। सुमन अपने ही हाथ से भोजन बनाती थी। पतित होकर भी वह खान-पान में विचार करती थी। आज उसने व्रत करने का निश्चय किया था। मुक्ति के दिन कैदियों को भी भोजन अच्छा नहीं लगता।
दोपहर दो धाड़ियों का गोल आ पहुंचा। सुमन ने उन्हें भी बहाना करके टाला। उसे अब उनकी सूरत से घृणा होती थी। सेठ बलभद्रदास के यहां से नागपुरी संतरे की एक टोकरी आई, उसे सुमन ने तुरंत लौटा दिया। चिम्मनलाल ने चार बजे अपनी फिटन सुमन के सैर करने को भेजी। उसने उसको भी लौटा दिया।
जिस प्रकार अंधकार के बाद अरुण का उदय होते ही पक्षी कलरव करने लगते हैं और बछड़े किलोलों में मग्न हो जाते हैं, उसी प्रकार सुमन के मन में भी क्रीड़ा करने की प्रबल इच्छा हुई। उसने सिगरेट की एक डिबिया मंगवाई और वार्निश की एक बोतल मंगवाकर ताक पर रख दी और एक कुर्सी का एक पाया तोड़कर कुर्सी छज्जे पर दीवार के सहारे रख दी। पांच बजते-बजते मुंशी अबुलवफा का आगमन हुआ। यह हजरत सिगरेट बहुत पीते थे। सुमन ने आज असाधारण रीति से उनकी आवभगत की और इधर-उधर की बातें करने के बाद बोली– आइए, आज आपको वह सिगरेट पिलाऊं कि आप भी याद करें।
अबुलवफा– नेकी और पूछ-पूछ!
सुमन– देखिए, एक अंग्रेजी दुकान से खास आपकी खातिर मंगवाया है। यह लीजिए।
अबुलवफा– तब तो मैं भी अपना शुमार खुशनसीबों में करूंगा। वाह रे मैं, वाह रे मेरे साजे जिगर की तासीर।
अबुलवफा ने सिगरेट मुंह में दबाया। सुमन ने दियासलाई की डिबिया निकाल कर एक सलाई रंगड़ी। अबुलवफा ने सिगरेट को जलाने के लिए मुंह आगे बढ़ाया, लेकिन न मालूम कैसे आग सिगरेट में न लगकर उनकी दाढ़ी में लग गई। जैसे पुआल जलता है, उसी तरह एक क्षण में दाढ़ी आधी से ज्यादा जल गई, उन्होंने सिगरेट फेंककर दोनों हाथों से दाढ़ी मलना शुरू किया। आग बुझ गई, मगर दाढ़ी का सर्वनाश हो चुका था। आईने में लपककर मुंह देखा। दाढ़ी का भस्मावशेष उबाली हुई सुथनी के रेशे की तरह मालुम हुआ। सुमन ने लज्जित होकर कहा– मेरे हाथों में आग लगे। कहां-से-कहां मैंने दियासलाई जलाई।
उसने बहुत रोका, पर हंसी ओठ पर आ गई। अबुलवफा ऐसे खिसियाए हुए थे, मानों अब वह अनाथ हो गए। सुमन की हंसी अखर गई। उस भोंड़ी सूरत पर खेद और खिसियाहट का अपूर्व दृश्य था। बोले– यह कब की कसर निकाली?
सुमन– मुंशीजी, मैं सच कहती हूं, ये दोनों आंखें फूट जाएं अगर मैंने जान-बूझकर आग लगाई हो। आपसे बैर भी होता, तो दाढ़ी बेचारी ने मेरा क्या बिगाड़ा था?
अबुलवफा– माशूकों की शोखी और शरारत अच्छी मालूम होती है, लेकिन इतनी नहीं कि मुंह जला दें। अगर तुमने आग से कहीं दाग दिया होता, तो इससे अच्छा था। अब यह भुन्नास की-सी सूरत लेकर मैं किसे मुंह दिखाऊंगा? वल्लाह! आज तुमने मटियामेट कर दिया।
सुमन– क्या करूं, खुद पछता रही हूं। अगर मेरे दाढी होती तो आपको दे देती। क्यों, नकली दाढ़ियां भी तो मिलती हैं?
अबुलवफा– सुमन, जख्म पर नमक न छिड़को। अगर दूसरे ने यह हरकत की होती, तो आज उसका खून पी जाता।
सुमन– अरे, तो थोड़े-से बाल ही जल गए न और कुछ। महीने-दो-महीने में फिर निकल आएंगे। जरा-सी बात के लिए आप इतनी हाय-हाय मचा रहे हैं।
अबुलवफा– सुमन, जलाओ मत, नहीं तो मेरी जबान से भी कुछ निकल जाएगा। मैं इस वक्त आपे में नहीं हूं।
सुमन– नारायण, नारायण, जरा-सी दाढ़ी पर इतने जामे के बाहर हो गए! मान लीजिए, मैंने जानकर ही दाढ़ी जला दी तो? आप मेरी आत्मा को, मेरे धर्म को, मेरे हृदय को रोज जलाते हैं, क्या उनका मूल्य आपकी दाढ़ी से कम है? मियां, आशिक बनना मुंह का नेवाला नहीं है। जाइए, अपने घर की राह लीजिए, अब कभी यहाँ न आइएगा। मुझे ऐसे छिछोरे आदमियों की जरूरत नहीं है।
अबुलवफा ने क्रोध से सुमन की ओर देखा, तब जेब से रुमाल निकाला और जली हुई दाढ़ी को उसकी आड़ में छिपाकर चुपके से चले गए। यह वही मनुष्य है, जिसे खुले बाजार एक वेश्या के साथ आमोद-प्रमोद में लज्जा नहीं आती थी।